Friday, October 13, 2017

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

Comments : An article in the paper ten days ago pointed me to this poem and I just loved it, perhaps that's because I haven't read a powerful Hindi poem in a while. Later on I found out that this is quite a well-known poem, and many people hear it during their childhood. I'm glad I finally discovered it - der aaye durust aaye. - Zen
Here's a link to a clip of Manoj Bajpai reciting the poem on a youtube channel called Hindikavita.